"ग़ज़ल"
कब तक छुपेगी हुस्न की बिजली हिजाब में!
ये आग लगा के छोड़ेगी इक दिन नक़ाब में!!
ये कैसा गुलाबी हुस्न है आली जनाब में!
बस उन्हीं का चेहरा दिखता है हर गुलाब में!
तुझे मह-जबीं कहना भी तौहीन है तेरी!
बे-दाग़ तेरा चेहरा है दाग़ माहताब में!!
मैं पानी समझ के दौड़ा था सराब की तरफ़!
प्यास की नई किश्त मिली मुझ को सराब में!!
अच्छा किया जो तुम ने अपना घर बदल दिया!
अब क्या रहोगी तुम दिल-ए-ख़ाना-ख़राब में!!
दुख दर्द के सिवा भला क्या पाओगी मुझ से!
काटी है मैं ने ज़िंदगी मुसलसल अज़ाब में!!
उस के बा'द वो 'परवेज़' कभी मिल नहीं सकी!
इक बार ज़िंदगी से मैं मिला था ख़्वाब में!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad