"ग़ज़ल"
हो चौदहवीं का चाॅंद तुम मुझे नसीब से मिला हुआ!
या बहार-ए-चमन की शाख़ पे फूल कोई खिला हुआ!!
यूॅं तुम जो मुझ को मिल गए अब कुछ नहीं मुझे चाहिए!
आज से और अभी से मैं ऐ जान-ए-मन तिरा हुआ!!
मैं दीया था और तू बाती थी हम साथ साथ जलते थे!
तेरे बिन मैं कुछ नहीं इक चराग़-ए-सहर बुझा हुआ!!
तुम दिल के जिस मोड़ पर मुझे चल दिए थे छोड़ कर!
तिरा मुन्तज़िर हूॅं आज भी उसी मोड़ पर रुका हुआ!!
मिरी दास्ताॅं जो पढ़ लिया तो ग़म-ज़दा हो जाओगे!
मिरा हाल-ए-ज़ार है मिरे ऑंसुओं से लिखा हुआ!!
तुम चाह कर भी मेरे लिए अब कुछ नहीं कर पाओगे!
हालात का मारा हूॅं मैं वक़्त के हाथों लुटा हुआ!!
दो बीवियों के शौहर का मैं हाल कैसे बयाॅं करूॅं!
जैसे ताड़ से गिरा हुआ खुजूर में फॅंसा हुआ!!
'परवेज़' मिरा वजूद इक दिन धुऑं धुऑं हो जाएगा!
मिरी दो उंगलियों के बीच होगा सिगरेट इक दबा हुआ!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad