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कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayra By Reena Kumari PrajapatDastan-E-Shayra By Reena Kumari Prajapat

कविता की खुँटी

                    

पुरुष सशक्तिकरण की पुकार

Apr 29, 2025 | संपादकीय | ABHISHEK MISHRA  |  👁 81,772

"पुरुष सशक्तिकरण की पुकार" – अभिषेक मिश्रा की यह कविता भारत की बगी धरती से उठी एक महत्वपूर्ण आवाज़ है, जो पुरुषों के बढ़ते शोषण और मानसिक उत्पीड़न के खिलाफ एक महत्वपूर्ण संदेश देती है। जहां आज हमारा समाज महिला सशक्तिकरण के बारे में लगातार जागरूक हो रहा है, वहीं पुरुषों के दर्द और उनकी आवाज़ को अनदेखा किया जा रहा है। अभिषेक मिश्रा का यह लेख उस सच्चाई को उजागर करता है, जिसे समाज ने अक्सर नज़रअंदाज़ किया है।

कविता में अभिषेक मिश्रा ने पुरुषों की संघर्षशीलता, उनके झूठे आरोपों, और कानूनी दुरुपयोग का जिक्र किया है। उनका मानना है कि महिला सशक्तिकरण का अर्थ पुरुषों का शोषण करना नहीं है, बल्कि यह दोनों लिंगों को समान अधिकार और सम्मान देने का मार्ग है। इस कविता का उद्देश्य यह जागरूकता फैलाना है कि पुरुषों की मानसिक और शारीरिक पीड़ा को भी उतना ही अहम माना जाए जितना महिला की।

साथ ही, यह कविता महिलाओं से यह अपील करती है कि वे अपनी शक्ति का सही तरीके से इस्तेमाल करें और पुरुषों को इंसानियत के नज़रिए से देखें। अगर हम दोनों लिंगों के दर्द को समझेंगे और सम्मान देंगे, तो समाज में समरसता और समानता कायम होगी।

लेखक द्वारा Quote:
"समानता का हक हर किसी का है, नारी और पुरुष दोनों का। महिलाओं से विनती है, सही उपयोग करो अपनी शक्ति का।"
— अभिषेक मिश्रा

"पुरुषों का सशक्तिकरण"

"अब पुरुषों का दर्द भी सुना जाएगा!"

भारत की धरा पर घिरा अंधकार,
पुरुषों पर टूटा अन्याय का भार।
कभी झूठे इल्ज़ाम, कभी मौत का डर,
दबा दिया जाता है हर एक स्वर रोज।

"अब चुप्पी नहीं, अधिकार चाहिए!"

महिलाओं को सम्मान जरूरी सही,
पर पुरुषों की व्यथा भी सुननी चाहिए।
झूठ के जाल में न फँसाओ उन्हें,
हर बेकसूर को अब बचाना चाहिए।

"पुरुष भी इंसान हैं, पत्थर नहीं!"

दिल उनका भी धड़कता है यारों,
दर्द उनके भी गहरे हैं प्यालों।
डर-डर कर जीना कैसा इंसाफ?
इंसानियत पर उठने लगे हैं सवाल।

"झूठी चीखों का अंत करो!"

गलत आरोपों का खेल बंद करो,
नारी का सम्मान हैं अनमोल सही।
पर सत्य और न्याय की भी अलख जलाओ,
हर दिल को बराबरी का हक दिलाओ!

"समाज जागे, बराबरी लाए!"

अब वक्त है न्याय का बिगुल बजाने का,
हर आहत मन को अपनाने का।
पुरुषों को भी चाहिए सहारा,
सम्मान से जीने का प्यारा नारा।

" दर्द भी है, हक भी है!"

हर दिन बुझती आँखों में,
सपनों का एक मूक शोक है।
हर झूठे इल्ज़ाम तले,
एक सच्चा दिल रोता है।

"इंसाफ चाहिए, रहम नहीं!"

महिला शक्ति का हम करते सम्मान,
पर झूठ का खेल न सहे हिंदुस्तान।
सम्मान दो, अन्याय नहीं,
सच को मत कुचलो कहीं।

"समान अधिकार, सच्चा न्याय!"

कभी पिता, कभी भाई का बोझ,
हर दर्द को सीने से लगाया रोज।
अब झूठी तलवारें तोड़नी होंगी,
सच्चाई के दीप जलाने होंगे।

"न्याय की रौशनी से हर दिल महकेगा!"

झूठी शिकायतों की आंधी थमेगी,
सच्चे दिलों की गूँज उठेगी।
कदम कदम पर सच का दीप जलेगा,
अब हर पुरुष भी सम्मान से चलेगा।

"सम्मान सभी को — यही अभियान!"

अब न रुकेगा ये नया सवेरा,
हर पुरुष का अधिकार बनेगा बसेरा।
सम्मान सभी को मिलना चाहिए,
यही है सशक्त भारत का नारा!

लेखक
-अभिषेक मिश्रा ( बलिया )




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (1)

+

वन्दना सूद said

बहुत सही बात व्यक्त की आपने अपनी रचना के माध्यम से 👌👌✍️✍️हम आपके साथ हैं और इस बात को बहुत अच्छे से agree करते हैं कि आजकल समाज में महिला सशक्तिकरण के नाम पर बहुत ग़लत भी हो रहा है और आपने शायद news में सुना होगा कि अब male members के लिए भी कोई प्रावधान बनने जा रहा है

ABHISHEK MISHRA replied

जी धन्यवाद् आपका, बस मेरा यहीं आग्रह है सभी से कि हर एक व्यक्ति का समान सम्मान होना चाहिए।

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