तुम्हारे सामने मैं स्वाभिमान भूल गई,
इश्क़ में कुछ यूँ थी कि पहचान भूल गई।
जो भी था मेरा, मैंने सब कुछ दे डाला,
और तुमने कहा — “तू तो शान भूल गई!”
हर चोट पे बस हँसकर मुस्काई मैं,
तुम बोले — “लगता है, तू जान भूल गई।”
मैंने हर बार माफ़ किया,
तू हँस पड़ा — “ये तो परिणाम भूल गई।
मैंने अपना वजूद रख दिया था तुझपे,
तू हँस पड़ा — “ये तो औकात भूल गई।”
तू ज़हर भी देता तो पी जाती चुपचाप,
तू कह गया — “लगता है स्वाद भूल गई।”
मैंने रो-रोकर तुझसे प्यार माँगा,
तू कह गया — “ये तो सम्मान भूल गई।
मैं चुप रही, जब हर बात चुभी मुझको,
तू हँस पड़ा — “ये तो अपमान भूल गई!
हर बार गिर के उठी थी बस तेरे लिए,
तू कह गया — “शायद ये नुकसान भूल गई।
शारदा’ अब खुद से कहती है हर शाम,
“काश, तुझसे पहले मैं आईना देख लेती।