प्रेम वो सागर है, जिसकी कोई थाह नहीं,
जिसमें डूबे राधा-कृष्ण, फिर कोई चाह नहीं।
मुरली की धुन में राधा की सांसें बसती थीं,
कृष्ण की हर लीला में राधा ही हस्ती थीं।
मंदिरों में नहीं, प्रेम वृंदावन में पनपा,
जहाँ न कोई वचन, न कोई बंधन बंधा।
प्रेम ना पूछे जाति, ना खोजे प्रमाण,
राधा ने जिया जिसे, था वो निष्काम ज्ञान।
मीरा ने पीया विष, मगर नाम तेरा लिया,
एक तुलसी, एक मुरली, बाकी सब त्याग दिया।
राजमहल छोड़ा, बनी वो दर-दर की साध्वी,
कृष्ण में ही खोई, बनी जन-जन की भावी।
प्रेम वो दीप है, जो अंधेरों में जलता है,
स्वार्थ की आँधी में भी, ना कभी मचलता है।
राधा की मौन भक्ति, मीरा की पुकार,
प्रेम में ही मिलते हैं कृष्ण हर बार।
अंकुश गुप्ता