नफ़रत की अपनी भट्ठी में
तुम्हें गलाने की कोशिश ही
मेरे अंदर बार-बार ताक़त भरती है
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है अपने ऋषि का,
वियेत्कांग के तरुण गुरिल्लें जो करते थे
मेरी प्रिया नहीं करती है...
नव-दुर्वासा, शबर-पुत्र मैं, शबर-पितामह
सभी रसों को गला-गला कर
अभिनव द्रव तैयार करूँगा
महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन
अष्ट धातुओं के चूरे की छाई में मैं फूँक मारूँगा
देखोगे, सौ बार मरूँगा
देखोगे, सौ बार जिऊँगा
हिंसा मुझसे थर्राएगी
मैं तो उसका ख़ून पिऊँगा
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का
जन-जन में जो ऊर्जा भर दे, उद्गाता हूँ उस रवि का