मुझे इन दिनों बस फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है। सुबह देर से उठना, रात देर तक जागना जैसे घड़ी की सुइयाँ भी मेरी मनोदशा से प्रभावित-सी लगती है।
कहीं बाहर जाने की हड़बड़ी नहीं, किसी से मिलने की मजबूरी नहीं। न कोई काम का बोझ, न किसी रिश्ते की कशमकश। मानो ज़िंदगी ने सब कुछ सुलझा दिया हो।
न कोई फ़िक्र है जो दिल पर बोझ बने, न कोई याद है जो बेचैनी जगाए। सब कुछ ख़ामोश, सब कुछ ठहरा हुआ शून्य में।
लेकिन…जब आख़िर में सोचती हूँ कि “कोई याद बाक़ी नहीं है” तो दिल थोड़ा काँप उठता है क्योंकि सच तो यह है कि कहीं न कहीं दिल के कोनों में अब भी कुछ अधूरे किस्से साँस लेते हैं। कुछ चेहरे अब भी भीड़ में तलाशे जाते हैं। कुछ आवाज़ें अब भी ख़ामोशी में गूँजती हैं।
शायद यही वजह है कि आख़िरी मिसरा “न कोई याद बाक़ी है” पूरी तरह सच नहीं लगता। उसमें हल्की-सी झलक झूठ की है, जिसे मैं छुपाना चाहती हूँ, पर छुपा नहीं पाती। खुद ब खुद 'उपदेश' बुदबुदाती।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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