ना रुकती है ना थमती है,
बिना डरे इस अग्निपथ पर
बस वो चलती जाती है,
वो अपनी राह बनाती है
चट्टानों से टकराती है
दुनिया की तीखी बातों पर
बस मंद मंद मुस्काती है,
जब सोचा सबने अब टूटेगी
उठ जाग दहाड़ लगाती है
काल कपाल पर लहू चढ़ा कर
ममता की छाँव बिछाती है
नैनों में उसके अंगारे भी हैं
और करुणा सागर भी छलकाती है
ना अबला है ना बेचारी है
ना कोई राजदुलारी है
वो मीरा, राधा और शक्ति भी
और वो ही जनककुमारी है
अभिमानी को धूल चटा दे
वो आज की अद्भुत नारी हैl
कवि - श्री मयंक शर्मा जी