हमारा मर्ज़ कुछ था, उनकी दवा कुछ और..
रगों में लहू की दरकार थी, बहा कुछ और..।
मुआफ़ करने का, कहने में भी हमें हिचक है..
उनके हैं कानून कुछ और, सज़ा कुछ और..।
उन पर जाने क्यूं हमें, हर बार यकीं आ जाता है..
लगता है उनके बेपर्दा होने हैं, गुनाह कुछ और..।
उनकी बात पर अमल करने को, दिल ना माना..
उनके मन में कुछ था, दे गए सलाह कुछ और..।
उनसे मुहब्बत की ख़बर, मेरे दिल तक ना पहुंची..
अब लाओ कहीं से, मेरे हुनर के गवाह कुछ और..।
वो भटका कर राहें, हमे ले गए माझी की ज़ानिब..
सब जानते हुए भी, हम होते रहे गुमराह कुछ और..।
किसी और को मैं, क्या कसूरवार कहूं ज़माने में..
अब तो बस हो जाए, खुद से निबाह कुछ और..