अब वो दिन न आता, ना आती रात वैसी,
दिन गुजारता हूं म्यान में पड़ी तलवार सा,
रात सुबह के अख़बार जैसी,
कब तलक लौटकर आओगे ओ जाने वालों,
तुम बिन लगता ये शहर भी विधवा के मांघ जैसी..!
- कमलकांत घिरी ✍️
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रात सुबह के अख़बार जैसी,
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तुम बिन लगता ये शहर भी विधवा के मांघ जैसी..!
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