मेरे भीतर का जंगल
बरसों से सूखी पत्तियों का बोझ ढोता रहा,
पर एक बार भी
तेरे कदमों की आहट
बारिश नहीं बनी।
मेरे सपनों की नदी
हर मोड़ पर तुझसे मिलने को मुड़ती रही,
पर तेरी मौन पहाड़ियों की चुप्पी
उसकी धार को रोकती रही।
मैंने तेरे नाम से
रात के आकाश पर दीप जलाए,
पर सुबह की कठोर धूप
उन्हें राख बना गई।
मेरी हथेलियों की लकीरों में
आज भी तेरी परछाइयाँ बसी हैं,
जैसे रेगिस्तान की रेत में
एक अनसुनी नमी छुपी हो,
जो कभी पूरी नहीं होती।
तू था तो
मेरे भीतर के सारे मौसम रंगीन थे—
बसंत की तरह हँसते हुए,
पलाश के फूलों-से दहकते हुए।
तू था तो
समुद्र की लहरें
मेरे दिल की धड़कनों में गुनगुनाती थीं,
और पंछियों के झुंड
मेरे कंधों पर उतर आते थे।
पर अब—
मेरे मन की धरती पर
केवल शरद की खामोशी है,
जहाँ झड़ते पत्तों की आवाज़
तेरा नाम दोहराती है।
और मैं—
हर सुबह की धूप में
तेरी परछाईं खोजता हूँ,
जैसे कोई प्यासा हिरण
क्षितिज के पार नहीं,
तेरे अनंत सरोवर में
अपना प्रिय जल तलाशता हो।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड