बग़ैर उनके हमारी जो ये, तबीअ'त बहल जाएगी..
इस तरह तो रफ़्ता–रफ़्ता, हर चीज बदल जाएगी
गुल खिलेंगे मगर, उन पे उदासियां सी तारी होंगी..
बुलबुल मुहब्बत के नग़में, गाने को मचल जाएगी..।
ये ज़िंदगी भी ताउम्र, हजारों मोड़ों से गुज़रती रही..
सम्भली नहीं, बस लगता रहा कि सम्भल जाएगी..।
महफ़िल में पाबंदियां हैं, इस कदर की क्या कहिए..
शमा भी परवाने के इंतिज़ार में, यूं ही जल जाएगी..।
हममें नहीं अब, उतनी कुव्वत–ए–ज़ाँ बाकी मगर..
दुनिया को मुहब्बत का पैगाम देने, मेरी ये ग़ज़ल जाएगी..।
पवन कुमार "क्षितिज"