ले जमीं, से फलक,
तनहा हूँ नाहक,
न सबर,न बसर,
तब से,अब तक,
कुछ सीखा तो हूँ,
पर बाकी हैं सबक,
नम हैं आंखें,
पर गम से नहीं,
खुशियों का सबब,
ना ही अब,ना ही तब,
शायद है ये गम,
नहीं होता है कम,
कुछ है बाकी,
पर कुछ भी नहीं,
तनहा सा सफर,
तो था न कभी,
मिल जाती हैं यूँ,
तो मंजिलेें सभी,
कुछ कभी,
कुछ कभी,
पर तब कुछ नहीं,
और अब कुछ नहीं,
रोता तो मैं हूँ,
पर रोता नहीं,
रोता हुआ खुद को
देखा भी नहीं,
जानता हूँ खुद को,
रोता हूँ बहुत,
अंदर ही कहीं,
चलता है पता,
हाँ मुझको भी,
ले जमीं, से फलक,
तनहा हूँ नाहक,
न सबर,न बसर,
तब से,अब तक।
-अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)
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