पगडंडियों से गुजरती
शाम की हल्की धूप
जैसे किसी बूढ़े की हथेली पर
रुके वक्त की रेखाएँ हों।
कुछ पत्तियाँ गिरती हैं,
बिना शोर किए —
जैसे
किसी पुराने रिश्ते की याद
धीरे से छूकर चली जाए।
कोई पक्षी नहीं बोलता
न हवा चलती है तेज़,
फिर भी मन में
एक उथल-पुथल
चलती रहती है।
मैं देखती हूँ खुद को —
धूप, पत्तियाँ और यादों के बीच
कहीं खोया हुआ
एक अक्स।
सामने बैठी बेंच पर
धूप की आखिरी किरणें
उतरती हैं मेरे सवालों पर —
“क्या हर शाम
इतनी अकेली होती है?”
सड़कों के किनारे
पेड़ की छाया लंबी हो चली है,
जैसे कुछ रिश्ते
वक़्त के साथ
बस फैलते जाते हैं,
पर पास नहीं आते।
कोने में पड़ी एक सूखी टहनी
मुझे माँ की चूड़ियों की याद दिलाती है,
जो अब सिर्फ अलमारी में हैं,
उनकी तरह —
जो कभी बहुत बोलती थीं,
अब मौन हैं।
शाम की चुप्पी
जैसे किसी पुस्तक का आखिरी पन्ना हो,
जिसे पढ़कर
न तो कुछ समझ आता है,
न ही भूला जाता है।
और तभी
एक बच्चा हँसता है पास से गुज़रते हुए —
उसकी हँसी
इस पूरे मौन में
एक ताज़ा बूँद की तरह गिरती है,
फिर… सब कुछ
थोड़ा सा आसान लगने लगता है।


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
The Flower of Word by Vedvyas Mishra







