जले की दफ़्न हो, एक दिन
बदन तो ख़ाक होनी है
मसअला पैकर का है वो जाने
क़फ़स से रूह तो रिहा होनी है
ख़्वाहिश ए दिल है कि
सबा में घुल के
मेरी ख़ुश्बू फ़िज़ा हो जाये
इससे पहले की तार टूटे
मुसलसल इन सांसों का
जाँ-ब-लब हो हम और
ये जिस्म बेजाँ हो जाये
हसरत ए दिल है कि
ढलकर मैं ख़ुद ब ख़ुद
हसीं जज्बातों में
हसीं ग़ज़लों में और
हसीं नग़्मातों में
तमन्ना ए दिल है बशर'
हर्फ़-दर-हर्फ़ उतरकर
दिलों में अहल-ए-दिल
के फ़ना हो जाये
----अशोक पाठक