शक कर रहा है जमाना ये मुझ पर,
कि कैसे जी रहा है ये,
बिन एक कतरा शराब के,
सारे गमों को कैसे पी रहा है ये,
ठोकरें ही दी है वक़्त ने मुझको,
पैसा भी मेरे पास नही,
अपनों का मिल जाए साथ तो,
खैर! कोई बात नही,
शब्दों को सजा कर खून से,
दिल के हिसाब मे रख दूँगा,
जख्मों को बना कर कोयला,
दिलजले की किताब में रख दूँगा,
लोग तरस खाए मुझ पर,
मैं इतना भी कमजोर नही,
जा भूल जाऊँगा तुझको,
और शीश काट कर अपना,
वतन के नाम पर रख दूँगा।
जय हिन्द।
जय भारत।
लेखक- रितेश गोयल 'बेसुध'