👉बह्र - बहर-ए-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब
👉 वज़्न - 221 2122 221 2122
👉 अरकान - मफ़ऊल फ़ाएलातुन मफ़ऊल फ़ाएलातुन
काँटों भरी हैं राहें फ़िर भी मैं चल रहा हूँ
शायद यही वज़ह है लोगों को खल रहा हूँ
हर मोड़ पे खड़ी है बाहें पसारे मुश्किल
गिरता रहा हूँ अक्सर गिरकर संभल रहा हूँ
जिद्दी हवा की ख़्वाहिश नाम-ओ-निशाँ मिटाना
जिद्दी चराग़ सा मैं बेख़ौफ़ जल रहा हूँ
जिसका ख़ुदा हो उसका कोई भी क्या बिगाड़े
सीने में आग लेकर तूफ़ाँ में पल रहा हूँ
पहले में चाहता था सारा जहाँ बदलना
आई है अब समझ तो ख़ुद को बदल रहा हूँ
अब जाके जिंदगी को समझा है 'शाद' मैंने
वो मुझमें ढल रही है मैं उसमें ढल रहा हूँ
©विवेक'शाद'