सुना है फर्क होता है,
इंसान और जानवर में।
हम बुद्धिमान कहे जाते हैं,
वो बेज़ुबान कहलाते हैं।
पर देखो ना उनका सलीका,
ना नदी में कूड़ा, ना हवा में ज़हर,
अपना जंगल, अपना आसमान,
रखते हैं जैसे कोई अमूल्य नगर।
न कोई मादा पर अत्याचार,
न आंखों में हवस की मार।
वो जीते हैं बस जीने दो के भाव से,
हम जीते हैं बस छीनने की चाह से।
फिर जब कोई जानवर
भूल से आ जाए शहर में,
तो चीखते हैं, मारो, भगाओ,
जैसे उनकी जगह नहीं इस ज़मीन पर।
और जब हम जाते हैं जंगल में,
कैमरा, आवाज़ और गंदगी लिए,
वो बस चुपचाप देखते हैं,
या डरकर कहीं कोने में सिमट जाते हैं।
हम कहते हैं — हम इंसान हैं,
सबसे ऊपर, सबसे समझदार।
पर अगर यही समझदारी है,
तो फिर यह कैसा व्यवहार?
हर रोज़ कोई बेटी असुरक्षित,
हर गली में डर की सरगर्मी।
प्रकृति रो रही है,
और हम खुद को कहते हैं—‘इंसानी कौम की नर्मी’?
अब बताओ...
अगर इंसानियत में ही इंसान हार रहा है,
तो फिर सच्चा प्राणी कौन है —
वो ‘जानवर’, या हम ‘इंसान’ कहलाने वाले?

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




