गांव में वो थी,
मेरे से भी पहले..
रौनक और जिंदादिली
से भरी हुई..
सारे गांव का वो केंद्र–बिंदु थी,
वो चलती रहती थी
मगर कभी घर से बाहर नहीं गई..
उसके चलने से ही
सबको सुकून था..
उसकी तबियत बिगड़ने
पर पूरे गांव में उदासी
और बेचैनी होने लगती..
उसकी सुरीली आवाज़ के
सब कितने दीवाने थे..
वो जब खामोश होती
तो लगता कुछ खो गया है..
उसका होना ही जैसे गांव
का होना था..उसमें एक जीवन था
एक स्पंदन था..
मैं जब शहर गया तो उसने
सजल नेत्रों से मुझे विदा किया..
उसकी यादें कभी धुंधली न हुई..
अब बहुत सालों बाद जब
मैं फिर अपने गांव लौटा,
तो वो वहां नहीं थी,
मुझे असीम हैरानी और पीड़ा हुई..
मैने इधर उधर बैचेनी से देखा,
मगर ना वो जगह थी और
ना ही गांव की वो इकलौती
"आटा चक्की" थी..।।
पवन कुमार "क्षितिज"