मेरे भीतर जो जलती थी, वो आग बुझा दी गई,
मुझे ‘संस्कारी’ कहा गया — और ज़ुबान कटा दी गई।
हर सवाल को “मर्यादा” में बांध दिया उन्होंने,
जो सच था मेरे अंदर, वो बात छुपा दी गई।
“अच्छी लड़की चुप रहती है” — ये रट लगाई गई,
मेरी चीखों को चुटकुलों में बदल दिया गया।
जो मैंने कहा, वो ग़लत था, जो वो बोले, वही धर्म,
मुझे नियमों से पाला गया, उन्हें माफ़ी सिखा दी गई।
जब मैं हँसी, कहा — “ज़्यादा मत बोलो, सभ्य बनो”,
जब मैं रोई — तो कहा, “कमज़ोर हो”, दया दिला दी गई।
मेरे संस्कारों की चुप्पी ने उन्हें देवता बना दिया,
वरना वो भी इंसान थे — बस ज़रा ऊँचा बैठा दिया।
“मैं ‘अच्छी’ नहीं बनना चाहती थी,
मैं ‘सच्ची’ रहना चाहती थी —
पर उन्होंने मेरे सत्य को संस्कार कहकर ख़ामोश कर दिया।”