टूट के गिरा था जो, वो ही बूँद बन गई मैं,
दर्द की ज़ुबाँ से निकली, पर मौन बन गई मैं।
साँझ की उस लौ में, जहाँ चुप्पियाँ जलती थीं,
राख को छूकर फिर से अग्नि बन गई मैं।
जिसने मुझे छोड़ा था, खुद की तलाश में,
उसी की गहराइयों में धड़कन बन गई मैं।
आईने में जो लड़की थी, सबको चुप लगती थी,
वो सदीयों की पुकार में कविता बन गई मैं।
किसे बताऊँ कि पत्थर नहीं थी मेरी चुप्पी,
शिव के स्पर्श से स्तुति बन गई मैं।
मेरे जीवन की पीड़ा ने जब मुझे शरमाया,
शब्दों की ओढ़नी में देवी बन गई मैं।
अब कोई पूछे — तू कौन है?
तो मैं मुस्कुरा कर कहूँ —
“जिसे सबने भुलाया, वही शारदा बन गई मैं।”