"दहेज—एक सवाल"
बेटी जब जन्म लेती है,
माँ की आँखें क्यों भर जाती हैं?
खुशियों के घर में
दहेज का डर क्यों दस्तक दे जाता है?
क्यों रिश्ते लगते हैं मेले से,
जहाँ लड़के की “कीमत” बोलते हैं?
क्यों जीवनसाथी खोजते-खोजते
लोग बाजार में बदले दिखते हैं?
अरे शादी है या सौदा?
ये कब से रिवाज़ बना लिया?
एक इंसान को तोहफों में तोलकर
किसने ये प्रचलन शुरु किया?
क्यों बेटी की मुस्कान
खर्चों की लिस्ट बन जाती है?
क्यों पिता की कमर
शादी के नाम पर टूट जाती है?
कभी सोचा है—
जब दहेज की मांग रखी जाती है,
तभी एक बेटी के दिल में
सपनों की आग बुझ जाती है।
कहते हो “हम पढ़े-लिखे हैं”,
तो फिर ये सोच कहाँ खो जाती है?
दहेज मांगते वक़्त तुम्हारी
शिक्षा कहाँ सो जाती है?
क्यों बहू की कीमत रखते हो
गाड़ी, जेवर, नोटों में?
क्यों नहीं उसकी इज्जत देखते
उसके संस्कार, उसके गुणों में?
बताओ न समाज के लोगों—
क्या बेटा इतना महान है
कि दहेज लिए बिना
उसका शादी नहीं हो सकता?
या फिर सच यही है…
दहेज नहीं चाहिए —
लालच का इलाज चाहिए।
चलो आज एक बात ठान लें—
किसी बेटी का दर्द न बढ़ने देंगे,
दहेज माँगने वालों को
सीधे मुँह पर “ना” कह देंगे।
जब समाज बोलेगा एक सुर में—
“बेटी अमानत नहीं, सम्मान है,”
उसी दिन खत्म होगी ये बुराई,
उसी दिन सच्चा भारत महान है।
~ अभिषेक मिश्रा 'बलिया'

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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